भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काहे को रे नाना मत सुनै तू / नागरीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरातन के,
         तै ही कहा ? तेरी मूढ़-गूढ़ मति पंग की.
वेद के विवादनि को पावैगो न पार कहूँ,
         छांड़ी देहु आस सब दान न्हान गंग की.
और सिद्धि सोधे अब,नागर,न सिद्ध कछू,
         मानि लहु मेरी कही वार्त्ता सुढंग की.
जाई ब्रज भोरे !कोरे मन को रंगाई लै रे,
         वृन्दावन रेनु रची गौर स्याम रंग की.