हरियाणवी लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
कित रम गया जोगी मंढी सूनी
जोगी करै मंढी की रकसा
मांग खुआवे उस नै झिकसा
कूण करेगा वा की परिकसा
जलगी लकड़ी बुझी धूणी
कित रम या जोगी मंढी सूनी
बात्तर कोठडी गुपत सिंघासण
जां रहता जोगी का आसण
ठाली नै सब तूंबे बासण
हे जी डिग ग्या मंदर बिना धूणी
कित रम ग्या जोगी मंढी सूनी
यो जोगी यो कैसा हेला
धोवै मंठी नै आप रै मैला
छोड़ दिआ रंग अपणा पैला
हे जी बोलत नाही भया मुनी
कित रम ग्या जोगी मंढी सूनी
सत गुरुआं ने दीना हेला
छोड़ मंढी ने ध्याया चेला
दो दिन का यो सारा मेला
हे जी कब तक रहेगी अफलातूनी
कित रम ग्या जोगी मंढी सूनी