किसी और बहाने से / अरुणाभ सौरभ
1.
मैंने तुमसे रात मांगी थी
और तुमने मेरे अंधेरे को
अपनी दूधियायी रोशनी से ढक दी
मैंने कहा-मुझे नींद चाहिए
और तुम जाग-जागकर अपने हिस्से की नींद
मेरे नाम करती रही
मैंने कहा-मुझे प्यास लगी है
तुम मेरी सारी तपिश को/सारे प्यास को
पी गयी गट-गट
और मेरे हिस्से
बादलों के कुछ टुकड़े छोड़ गई
मैंने कहा-मैं भूखा हूँ
और तुम थाली परोस चली गई चुपचाप
मैंने दर्द के हवाले से तुम्हें याद किया
तो ज़िस्म में कहीं दर्द का नामोनिशान नहीं था
मेरे रोम-रोम में सिहरन,
मांसपेशियों में गति,
नस-नस में लहू
भर देनेवाली
वो तुम ही थी
जाड़े की गहराती रात में
धुन्ध की हो रही थी जब बारिश
ठंढे होठों से सिसकियाँ भरकर
तेज़ साँसों से
काँपते हाथों से
जो मैंने कविता लिखी थी
उसमें,
हर जगह तुम ही थी
उसमें भी,
जहाँ एक आठ पैरों वाला या भुजाओं वाला ऑक्टोपस
ली फाल्क की मशहूर मैन्ड्रेक ज़ादूगर कामिक्स
से निकलकर अपनी हैरतंगेज़ कारनामों से
भविष्यवाणियाँ करके तुम्हें मेरी होने का
दावा करता करता रहा
और तुम्हारे मुँह से मेरे लिए बस निकलता रहा
"गिनिपिग-गिनिपिग ओह माइ डार्लिंग...किल मी...किल मी..."
और तुम मेरी बाहों में आकर खो गयी
और तुम,
ग्रीक के त्रासद नाटकों की नायिका जैसी
तुम कालीदास की विरहिणी यक्षिणी सी
जिसके लिए विधुर यक्ष ने मेघों को दूत बनाया था
जिसके लिए दुष्यंत छोड़ गए थे मुद्रिका
वो शकुंतला जैसी तुम
2.
और मैं,
तुम्हारे रेशमी दुपट्टे में
गूँथे हुए धागों के रेशे-रेशे में
मैं शामिल हूँ
जो तुम्हारी धड़कनों के साथ
हौले-हौले काँपता है,
तुम्हारी साँसों के उठने-गिरने की
गवाही में
समेटे ख़्वाब को बुनकर जो कुछ
कतरन जमा किया है कपड़ों का
उसके हर धागों में भी मैं ही हूँ
तुम्हारी आँखों में झाँकते सपनों के बीच
कई दिन,कई रात,कई मास
उनींदीयों में जागकर
कुछ सपने बुनती होगी तुम
उन सपनों की हक़ीक़त में
मैं ही हूँ,.....मैं हूँ ........
तुम्हारे होठों के गाढ़े लिपस्टिक के रंग में
मश्करे/आइलाइनर के रंगों में
बिंदी के रंगों में
सोलहों शृंगार में
और होठों पर पसरी दो बूंद प्यास के बीच
होठों पर पसरी दो बूंद प्यास के बीच
चेहरे पर हल्की बूंदें पसीने की
जिन्हें रुमाल से पोछना चाहती हो तुम
उस रुमाल के रेशे-रेशे में गूँथा मैं ही हूँ
अब सांसें चलती हैं रोज़
जैसे पहले चलती थी
रात-रात जैसी नहीं है,
अब नींद,नींद की तरह नहीं है
आधी रात जागकर उनींदी में कई कसक को
गले से बाहर कर
जो गीत गाये थे मैंने
उसके हर रियाज़ में तुम हो
3.
समय किसी ठहराव से आगे
बढ़ नहीं पा रहा है
जिस-जिस चीज़ का विरोध
आत्मा के कोर से करता रहा-ताउम्र
उन चीजों के सहारे जीना
हमारी फितरत बन गयी
हमारे बीच में
भूत की दुर्दैव यातना है,
अंधेरे के बोझ तले वर्तमान झुका है
अज्ञात रोशनी की खोज में भविष्य
निर्वंश खेत की तरह सादा है,कोरा है
फिर भी हम हैं,कि जीए जा रहे हैं
जैसे जीता है-घोंघा
मिट्टी के तलघर में
जैसे जीता है-साँप
किसी और के बिल में
जैसे जीता है-घड़ियाल
पानी के अजायबघर में
जैसे जीता है-बिच्छू
डंक मारने के लिए
वैसे जीते हैं-हम
अपना वजूद तय करने के लिए
पर वजूद-एक नकली अहंकार
दब्बू संवेदना का प्रतिफल नहीं तो
और क्या है?
एक तुम हो जो
मुझसे प्रेम करना चाहती हो
एक मैं हूँ जो
प्रेम में होना चाहता हूँ
हम दोनों भाषा की छत पर
शब्दों की नाव में जुगलबंदी करते हैं
यह आइसक्रीम,जिसे हमलोग एकसाथ
खाना चाहते हैं
किसी मरघट से लाये अंग जैसा लगता है,
ये चॉकलेट, जिसे एकसाथ चबाना चाहते हैं हम
इसमें गर्भपात की हुई अजन्मी लड़की का भ्रूण है,
ये कोल्ड़कॉफी,जिसे एक में ही दो पाइप लगाकर
चूसना चाहते हैं हम,
इसमें बलत्कृत स्त्री के
छत-विछत योनि से बहे खून का रंग है,
4.
कई डर शामिल हो गया है, तुम्हारी ज़िंदगी में
कितने युगों से
कितने कालखण्डों में
अपरिमित आकार को अपने
अर्थ दिलाने की युक्ति से
तन पर,मन पर,
सुख-दुख का अंबार लेकर
जमाने की धौंस सहकर
जीने की तमीज़ विकसित कर
रूप-रस-गंध शामिल कर
इतिहास की किताब में शामिल
डर-शामिल,शामिल डर.....
भोगते जीवन का रंगमहल
शामिल ज़िंदगी में
जागती रातों का डर शामिल,
चाय पानी की तरह-डर
पूनम की चाँद में
अमावश का डर
महाकाव्य की पंक्तियों से भी
निकलकर आता है-डर
कुछ भी सुन सकने से-डर
षोडशी,सुधामयी,प्रेममयी,अभिसारिका,प्रेयसी
जीवन में पराजित होती गयी-अहर्निश
नियति मान ली हो-पराजय
बारंबार पराजय पैदा करती है-डर
अर्थ देकर जीवन का
धरम-करम का,
काम-मोक्ष का,
योग-भोग का,
संजोग-वियोग का,
माया-मोह का,
आशा का,तृष्णा का,
द्वेष-वितृष्णा का,
शामिल पुरुषार्थ को
जीवन की गति में
जीवन को ऊँचाइयों से
देख लेती हो-तुम
देखकर फिर पैदा होती है-
डर...
भीड़-भाड़ से भरी सड़क पर
पैदल पार करने की कोशिश में
दिन में,भरी दोपहरी में
गुजरनेवाली गाडियाँ
पैदा करती है-डर
आधी रात में चमकती जुगनू
कीट-फतिंगों,छिपकलियों की
टिक-टिक,चिक-चिक...टिक-टिक,चिक-चिक...
तुम्हारे लिए पैदा करती है-डर
आधी रात में
पुलिस वैन से,अंबुलेस से
निकलकर आती खौफ़नाक आवाज़ें
पैदा करती है-
डर....ड...र...डर...
और डर हिस्सा हो गया है-हमारी ज़िंदगी का
जैसे कि-प्यार
5.
कुछ पल छूट सा गया है ज़िंदगी में
कुछ रातें जैसे बीतकर जैसे
कर रही हो सुबह का इंतज़ार
कुछ ख़्वाब हक़ीक़त और फसाने की
दोहरी चादर ओढ़कर
ज़िंदगी से बाहर चला गया है,
अब तो मौसम सुनाता है
कोई शांत संगीत
अब तो राग धुनों की शुरुआत करने
जीवन में आ गए हैं सारे
अब तो हर रागों में आलाप तुम्हारा है
अब तो चिड़ियों के गान में
बगावत की अनसुनी आवाज़ है
अब तो मछलियाँ तालाब जल से
एक-एक फूट ऊपर उछलती है,
अब तो पतझड़ के बाद पेड़ की डाल पर
वसंत आनेवाला है
अब तो हवाओं में है
उन्मत्त करनेवाली त्वरा
--6
हर तरफ़ पसरते नकली जीवन में
सच का एक-एक कतरा
कहीं खो गया है
और झूठ ने मसल कर रख दी है मेरी आत्मा
आत्मा की कातर पुकार सुनकर दौड़ जाता हूँ
जहां गुलदश्ते में रखे लाल गुलाबों से
तुम मेरा इंतज़ार कर रही हो
जैसे लरजती पत्तियों से भरे बाग में
एक सुनहरे महल पर चहकती चिड़ियाँ
और तालाब में उछलती मछलियों से नज़र बचाकर
एक सूखे कनेर की टहनी से
हौले से मुझे मार रही हो
और मैं मुसकुराता जा रहा हूँ
और,
किसी और बहाने से तुम मिलती हो
और,हम बचाते हैं मिलकर
अपने हिस्से की
थोड़ी सी हवा
थोड़ी सी हरियाली
थोड़ा भूख
थोड़ी प्यास
थोड़ी बारिश...