किसी का गुमशुदा सामान हूँ / गणेश पाण्डेय
कहाँ हो, तुम ?
न जाने कब से
खुला है यह द्वार तुम्हारे लिए
मिश्री की डली
एक गिलास शीतल जल
और एक कप गर्म चाय
खास तुम्हारे लिए
मेरी थाली का पहला कौर
मेरी आँखों की पहली नीन्द
और पहला स्वप्न तुम्हारे लिए
कोई तीस बरस से
सब जस का तस
तुम्हारे लिए
गुलमोहर के ये लाल फूल
खिलते हैं तुम्हारे लिए
मेरी खिड़की के सामने
झूमता है
अमलतास के पीले फूलों का
गुच्छा
खास तुम्हारे लिए
मेरे कमरे की छत पर
छाती है काली घटा
और बरसता है मेघ तुम्हारे लिए
निकलता है दिन
और होती है रात तुम्हारे लिए
उगता है चान्द
और बहती है ठण्डी -ठण्डी पुरवाई
तुम्हारे लिए
किसी की शादी हो
चाहे कोई संगीत संध्या
दिन और मौसम कोई भी
अपने में लीन स्त्रियों
और इत्र की ख़ुशबुओं के बीच
तुम्हें ढ़ूँढ़-ढूँढ़ कर
लौटता हूँ थक-हार कर
नित्य
बाहर का उजाला हो
चाहे भीतर का अन्धेरा
जर्जर किवाड़ पर हर दस्तक
हर आहट पर दौड़ पड़ता हूँ
फ़ोन की हर घण्टी पर भागता हूँ
तुम्हारे लिए
जैसे मैं बना ही हूँ तुम्हारे लिए
कहाँ हो, तुम
अपने इस पुराने और बेमरम्मत
सामान को छोड़कर
इस उम्र में
और इस मोड़ पर
अब और क्या हो सकता है, भला !
इस टूटे-फूटे जीवन में
इसके सिवा कि मैं किसी का
एक गुमशुदा सामान हूँ ।