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किसी को देखते क्यूँ आह रोते / 'जिगर' बरेलवी
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किसी को देखते क्यूँ आह रोते
जो बस चलता तो हम पैदा न होते
सहर होने को आई रोते रोते
कहीं वो आस्ताँ मिलता तो सोते
झुकी जाती हैं आँखें बार-ए-ग़म से
किसी आग़ोश में सर रख के सोते
नज़र देखा किये उन की हमेशा
यही हसरत रही हम जाने खोते
‘जिगर’ हम हैं तो ख़ालिक़ भी है कोई
न होता कुछ अगर हम ही न होते