किसी नदी की तरह.... / सजीव सारथी

सदियों से बह रहा हूँ,
किसी नदी की तरह......

जिन्दगी - मिली है कभी
किसी घाट पर,
तो किसी किनारे
कभी रुका हूँ पल दो पल,
जिस्म बन कर
आकाश में उडा हूँ कभी,
तो कभी जमीं पर
ओंधे मुँह पडे देखता हूँ –
अपनी रूह को.
कभी किसी बूढ़े पेड की
शाखों से लिपटा मिलता है,
तो कभी अनजानी आँखों में,
अजनबी चेहरों में,
कुछ ढूँढता सा दिखता है,
कभी किसी मज़ार पर
सजदे करता है,
तो कभी किसी पुराने मंदिर की
सीढियों पर पहरों बैठा मिलता है,

उलझी कड़ियों से परे,
मैं देखता हूँ अक्सर,
एक छोटी सी बोतल,
जिसमें क़ैद है –
एक देवता और एक शैतान,
जो बिना एक हुए
आ नहीं सकते बोतल से बाहर,
एक होकर दोनो क़ैद से तो छूटते हैं,
पर लड़कर फिर अलग हो जाते हैं,
और अलग होकर वापस
बोतल में सिमट जाते हैं,

याद नही ठीक से,
वक़्त दोहरा चुका है,
कितनी बार यह खेल,
दोहराएगा अभी और कितनी बार,
कौन जाने,
सदियों से बह रहा हूँ
किसी नदी की तरह....

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