कुण्डलिया-5 / बाबा बैद्यनाथ झा
रहती मन में मैल तो, चमक नहीं हो प्राप्त।
हृदय रहे निर्मल जहाँ, सुन्दरता तहँ व्याप्त॥
सुन्दरता तहँ व्याप्त, साधना जो भी करता।
पा लेता वह तेज, विघ्न भी उससे डरता॥
उसके मुख से नित्य, ज्ञान की गंगा बहती।
बन जाता गणमान्य, शारदा सम्मुख रहती॥
रहते ईश्वर जीव में, बिल्कुल एक समान।
मैं या पर का भेद तो, करते हैं नादान॥
करते हैं नादान, यही बन्धन का कारण।
रखने पर सम भाव, सुलभ है कष्ट निवारण॥
बढ़े विश्ववन्धुत्व, शास्त्र भी सब हैं कहते।
प्रभु ही जब सर्वत्र, हृदय में सबके रहते॥
दिनकर अपने आप में, थे कविता सम्राट।
धारदार थी लेखनी, था व्यक्तित्व विराट॥
था व्यक्तिव विराट, काव्यमय पूरा जीवन।
पढ़कर उनका काव्य, प्रफुल्लित होते तन-मन॥
लिखकर कतिपय छन्द, बना हूँ मैं भी अनुचर।
नमन करें स्वीकार, आप हे कविवर दिनकर॥
दिनकर विरचित 'रेणुका' , 'रसवन्ती' 'हुंकार' ।
पढ़ें 'सामधेनी' कभी, हो जीवन साकार॥
हो जीवन साकार, आप 'कुरुक्षेत्र' पढ़ेंगे।
'रश्मिरथी' को आप, पार्थ से वीर कहेंगे॥
अनुपम शाश्वत प्रेम, 'उर्वशी' में है रुचिकर।
सब प्रकार के ग्रन्थ, लिखे हैं अपने दिनकर॥