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कुलीनता / ‘हरिऔध’

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विवेक, विद्या, सुविचार, सत्यता।
क्षमा, दया, सज्जनता, उदारता।
क्रिया, सदाचार, परोपकारिता।
सदा समाधार कुलीनता रही।1।

परन्तु है आज विचित्र ही दशा।
विडम्बिना है नित ही कुलीनता।
सप्रेम है अर्पित हो रही सुता।
उसे बता वंशगता कुलागता।2।

किसी बड़े पूज्य महान व्यक्ति का।
सुवंश-सम्मान प्रदान योग्य है।
परन्तु तद्वंशज अज्ञ अग्रणी।
कदापि कन्यार्पण का न पात्र है।3।

गुणों बिना केवल वंश, विश्व में।
कदापि सम्मानित हो सका नहीं।
इसे सदा है करती प्रमाणिता।
कथावली पंकज कज्जलादि की।4।

अवश्य है अंधा-परम्परा किये।
हमें विवेकादि विहिन-मंद-धारी।
भला नहीं तो हम क्यों विलोकते।
स्वलोचनों से स्वसुता कदर्थना।5।

न मूढ़ ही हैं अविवेक में फँसे।
यही दशा है मतिमान वृन्द की।
समर्थ हैं जो तम के विनाश में।
स्वयं वही हैं तम-पुंज में पड़े।6।

पढ़ा, लिखा, अर्जन ज्ञान का किया।
सुधी बने, जीत सभा अनेक ली।
परन्तु पाई न विवेक-बुध्दि तो।
वृथा हुई सर्व अनुष्ठिता क्रिया।7।

उठा दृगों को कह दो मनीषियो!
बनी रहेगी कब लौं समाद्रिता।
कुलीनता के मिस निन्दिता प्रथा।
कुलीन के व्याज विमूढ़-मण्डली।8।

न काम आई प्रतिभा गरीयसी।
न बुध्दि विद्या विबुधों भरी सभा।
निपातिता जो न हुई प्रयत्न से।
प्रवर्ध्दमाना कुप्रथा-पिशाचिनी।9।

स्वजाति सेवा-व्रत है विडम्बना।
समस्त व्याख्यान प्रलाप मात्रा है।
विवेक-शीला वर बुध्दि आप की।
विलुप्त होवे यदि कार्य-काल में।10।

समाज के सम्मुख औ सभादि में।
जिसे बतावें अति कुत्सिता क्रिया।
करें उसी को यदि कार्य आ पड़े।
न अन्य तो है कुप्रवृत्तिा ईदृशी।11।

विलोक ली मुग्धा-करी विदग्धाता।
मनस्विता वाक्-पटुता सयत्नता।
शरीर की है धमनी सरक्त तो।
हमें दिखा दो निज कार्य-वीरता।12।

कुलीनता है अब भी अनेकश:।
सुवंश में शेष बची सुरक्षिता।
परन्तु योंहि यदि वंचिता रही।
विचित्र क्या है यदि हो तिरोहिता।13।

जहाँ अविद्वान विमूढ़ क्षुद्र-धारी।
वरेण्य हैं केवल वंश-सूत्र से।
वहाँ बनेगा जन कौन सद्गुणी।
सयत्न हो अर्जुन को कुलीनता।14।

विघातिनी है गुरुता स्वदेश की।
विलोपिनी है कुल-वन्दनीयता।
विनाशिनी है सुख-शान्ति जाति की।
अपूज्यता पूज्य, अपूज्य पूज्य।15।