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कुहूकिनी रे! / सत्यानन्द निरुपम

कुहूकिनी रे,
बौराए देती है तेरी आवाज़.

कहीं सेमल का फूल
कोई चटखा है लाल
तेरी हथेली का रंग मुझे याद आया है
आम की बगिया उजियार भई होगी
तेरी आँखों से छलके हैं
कोई मूंगिया राग री

गुलमोहर के फूल और
पाकड़ की छाँव सखि
पीपल-बरगद एक ठांव सखि
याद है तुमको वो गांव
फुलहा लोटे में गेंदे का फूल
मानो पोखर में तेरे कोई नाव

कैसा वो मिलना
जो बांहों का छूना
यूँ बतरस की लालच
या नयनन के जादू में
डूबना-पिराना
कुछ कहना न सुनना
वो हंसना तुम्हारा

कुएं में डाला हो
गगरी किसी ने
बूड-बूड के डूबना
जो आवाज़ आना
ऐसी ही तेरी आवाज़

अमिया के जैसी ही खुशबू तुम्हारी
रहती है बारहमासी
कच्ची सड़क पर ही बच्चों का हुल्लड
कंची का खेला, अंटी का झगडा
मारा है छुटकी ने
एड़ी धूरा में जो
बहती हवा संग बन के घुमेरा
उड़े बादलों के संग खेत-डडेरा

मुझे याद तेरे बालों की आई
कहीं गाँठ डाली किसी एक में थी
कैसा था टोटका
तू कैसे चिल्लाई
मारा सारंगी पे गच जो अचक्के
ऐसी थी तेरी आवाज़.

नाजो, सुनो ना...
ईया याद आती है
तुमको कभी क्या
मुझे याद अब भी है
दही का बिलोना
नैनू निकलते ही होंठों पर जबरन
रखना-लगाना
कहती थीं-
यूँ ही मुलायम रहेंगे

सचमुच, छुआ जब
तुम्हें, मैंने जाना
नैनू की तासीर मुलायम का माने
नैनू-सी तेरी आवाज़.