थूहर का काँटा
कुण्डी तो बजती
पर कब कोई आता
कैसी दोपहरी है,
कैसा सन्नाटा !
आ उढ़के पल्लों को
जब-तब खड़काती
दस्तक-सी देती है
पागल गर्म हवा
आती हैं -- जाती हैं
ड्योढ़ी तक नज़रें
यों भ्रम में ही यह
पूरा दिन बीत रहा
आँगन तक आने से
पाँव नहीं रुकते
गालों पर पड़ता पर
चट लू का चाँटा ।
सम्वेदन की पँखुरी,
सपनों की कलियाँ,
सम्बन्धों के बिरवे,
जब झुलसे पाता
तब कतरा यह मन
दहके जंगल से --
जलते सीवानों से
आकर जुड़ जाता
कोंपल की छुवनें
तो बातें हैं कल की
उँगली में चुभता अब
थूहर का काँटा ।