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कोई नहीं है बैठे-ठाले / जयप्रकाश मानस
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कोई नहीं है बैठे-ठाले
कीड़े भी सड़े-गले पत्तों को चर रहे हैं
कुछ कोसा बुन रहे हैं
केचुएँ आषाढ़ आने से पहले
उलट-पलट देना चाहते हैं ज़मीन
वनपांखी भी कुड़ा-करकट को बदल रहा है घोंसले में
भौंरा फूलों से बटोर रहा है मकरंद
साँप धानकुतरू चूहों की ताक में
उधर देखो - काले बादलों के पंजों से
किरणों को बचाने की कशमकश में चांद
पृथ्वी की सुंदरता में उनका भी कोई योगदान है
इनमें से किसी को शायद नहीं पता
फिर भी वे हैं कि लगे हुए रामधुन में
इसी समय –
नींद की कविता में
उतारा जा रहा है सुंदर पृथ्वी का सपना