भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोऊ कलंकिनि भाखत है कहि / भारतेंदु हरिश्चंद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोऊ कलंकिनि भाखत है कहि
कामिनिहू कोऊ नाम धरैगो ।
त्रासत हैं घर के सिगरे अब
बाहरीहू तो चवाव करैगो ।
दूतिन की इनकी उनकी
'हरिचंद' सबै सहते ही सरैगो ।
तेरेई हेत सुन्यो न कहा कहा
औरहु का सुनिबो न परैगो ।