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कोयल की कूक / मनीषा जैन
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जैसे-जैसे
तपता है दिन
फूटती है आम की मंजरी
अम्बी लेती है आकार
शहतूत भी होने लगते हैं
शरबती
कोयल की कूक
रात भर
न जाने किसे बुलाती है
किसे भेजती है संदेश
चलने लगती है हवायें
झूमने लगते हैं पेड़
कुछ अंम्बियां गिरती है
टप्-टप् शंख जैसी
टपकते हैं शहतूत
नर्म मुलायम लाल
लगते हैं नायाब
फिर सोचने लगती हूं
प्रकृति है जितनी नर्म व मीठी
मानव है उतना ही कठोर व सख़्त।