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क्या मेरा वक़्त आ चुका है / दिलीप चित्रे

क्या मेरा वक्त आ चुका है
यहाँ घड़ी नहीं है न है कोई कलेण्डर
पर जानता हूँ
कि पहुँच गया हूँ
पागलपन की स्तब्ध नोक पर
आईने ही दीवारे हैं कफ़न
कफ़न ही कैप्सूलें
अवकाश में तैरने वाली
क्या मेरा वक़्त आ गया है ?

मैं हो रहा हूँ वहशी
निर्विकारता में धुँधआता
किसी सन्त-सा
अपनी ही आँखें उखाड़ता
अन्धे आनन्द में नाचता
नापता कुद्ध फ़ासले
मेरे और अपने बीच
करता
अपनी ही शव-चिकित्सा
अपनी ही अँतड़ियों और भेजे के द्रव्य
अपनी ही अस्तित्व के जोड़ और तुरवाई की--
चमड़े के बटुए की जिसमें
सुरक्षित रक्खा था मैंने ब्रह्माण्ड
क्या मेरा वक़्त आ चुका है?

इस चीख़ के भीतर है
एक फैलती हुई ख़ामोशी
स्मतिविहीन मुस्कान
वैश्विक पाग़लखाने की खिड़कियों के बाहर
झाँकते शब्दों की
पहियेवाली कुर्सी के
चक्करदार वक्तव्य
पिघल रहे हैं धूप में
स्वर्ग के अस्तपताल में हैं
आनन्द के ढलान
मैं पहले से ही फिसल रहा हूँ
ढलानों पर
क्या मेरा वक़्त आ चुका है ?