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क्या वह सिर्फ तसव्वुर था / आलोक श्रीवास्तव-२

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कितना साहसहीन है आज मेरा प्यार
इस दुनिया के आगे हार रहा है
और तुम देख रही हो चुपचाप
इसी दुनिया का हिस्सा बनी हुई

तुम्हारी आंखों की सुंदरता कहीं डूब रही है
अस्त हो रहा तुम्हारे शरीर का छंद
एक राग विलीन हो रहा है

देखो, यह मैं हूं
जिसने धरती की कितनी सारी कविताओं से
वनस्पतियां लेकर उधार
कितने देशों के कितने अनाम फूलों का रंग मांग कर
कितने क्षितिजों पर झुके बादलों का उजास
समंदर के तमाम कोनों की अनंत नीलिमा
और प्रशांत गहराई लेकर
तुम्हें गढ़ा था

क्या वह सिर्फ तसव्वुर था?
तुम कहीं नहीं थी इस दुनिया में ?

फिर क्यों रक्त बहा था मेरे हाथों से ?
क्यों घायल हुईं थीं मेरी अंगुलियाँ ?
क्यों था चेतना का वह उद्वेलन ?
तुम कहीं नहीं थी इस दुनिया में
फिर क्यों इतने दहकते हुए शब्द
चले आते थे देशों और महाद्वीपों की दूरी तय कर
मुझ तक सिर्फ़ तुम्हारा पता बताने

चांद छूने को उठती
रात के अरब सागर की लहरें जो गीत
रोज़ कगार पर टांक कर छोड़ देती थीं
और खड़ी फसलों पर
दमकते सूरज की अथाह रश्मियां
जिंदगी का जो वैभव-गान रचतीं थीं
क्या वह तुम्हारे होने से परे की कोई चीज थी ?

मैंने तुम्हें शताब्दियों की खोई हुई गुफाओं से निकाला

और तुम थीं वहाँ -
समूची एक काया में
प्रकृति का आदिम उनींदा एक बोल

वह कल्पना न थी
मेरा सृजन था
जिसमें कौन कहेगा कि समय शामिल न था ?
प्रकृति नहीं मुब्तिला थी ?

हवाओं तक को तुम्हारी प्रतीक्षा थी
कितनी सारी पगडंडियों को इंतजार था तुम्हारे चलने का
कितनी नदियों, पोखरों, सुनसान वनों,
उनींदे गावों की कितनी राहों को
तुम्हारा इंतजार था
और तुम थीं वहाँ
हर चीज में शामिल
जिंदगी की हर सच्चाई में मौजूद

अनागत के वैभव की भव्य उठान !

समूची धरती पर गूंजता एक राग !

तुम्हारे सीने में छुपी
संसार की सबसे पवित्र कोमल गरमाई
और आँखों में एक भव्य इशारा
मानी की बुलंदियों को छूता हुआ

मेरे जीवन का एक अद्वितीय अनुभव थीं तुम

तुम्हारे चारों ओर सैकड़ों पर्वतीय झरनों का
फेनिल संगीत गूंजता हुआ बिख रहा था चट्टानों पर
विंध्य के वनों का गहन सन्नाटाअ
निविड़ रात के प्रहरों में
जंगली लहरों की खुशबू हवा के पंखों पर लाद कर
तब्दीळ हो रहा था रहस्य में

चैत्र में दहक उठे पलाशों का रंग
शाम के लाल आसमान से एकसार
सौंदर्य की अद्भुत दृश्यावली वना
बांसुरी की एक धुन में डूबा हुआ था
तुम इन सब में थीं --
हज़ार फूलों कि गमक अपनी काया में समेटे
तुम्हारे वस्त्रों में हवाऒं के बांधे कितने रहस्य थे !

जीवन की पीड़ाओ से उठता हुआ
आशा का, उम्मीद का, विश्वास का,
एक उर्जस्वी गीत!

समुद्र के खारे पानी से भीगी हवाओं के
परकोटे से घिरे इस द्वीप-नगर के
सदियों पुराने गाथिक-भवनों की
चौड़ी ईटों के मजबूत स्थापत्य में
छूट गयी इतिहास की गंध के बीच
तुम एक खूबसूरत वर्तमान थीं

इस नगर की विशाल भीड़ के बीच
कितनी गलियों-सड़कों, मकानों-चौराहों की
गुंजलक से मैंने तुम्हें आखिर खोज निकाला था

तुम्हारी फैली हुई बाहों के बीच
पूरा एक संसार दैदीप्य था
अपने ही उजास से

स्वपन और यथार्थ की इस महागाथा में
जीवन के अर्थ ही बदल गए थे
कोमलता का एक राग हर जगह तारी था

और तब
वसंत के आते ही
सरसों के खेतों ने पीले फूलों से
धरती पर अल्पना रच दी
नदी के पानी पर मीलों एक गीत
तिरता चला गया

देश-देशावर से आए परिंदों ने
आसमानों पर अपनी उड़ानॊं से दीप्त रेखाएं खींची

और हवा डूब गयी एक खुशबू में

यह तुम्हारी खुशबू थी !

तुम्हारा सारा वजूद
पृथ्वी का श्रॄंगार था

यह खुशबू, यह श्रॄंगार, यह वजूद
बरसों इसे मैंने गढ़ा था
इसी दुनिया के मौसमों से
पर अलग
विराट और सुंदर !
यह कौन-सा जादू है
जो इतनी बड़ी सच्चाई को
इस बेरहमी से
झूठ में, सपने में, माया में
तब्दील करता जा रहा है ?
और तुम देख रही हो चुपचाप
इसी जादू की दुनिया में खोई !