क्या साहस हारुँगा / संजय सिंह 'मस्त'
घटो-घटो मुझमें तुम,
ओ मेरे परिवर्तन।
मंद नहीं होने दूँगा,
मैं अपना अभिनव नर्तन।
क्या साहस हारुँगा!
कभी नहीं-कभी नहीं!
वीणा को सम पर रख,
अमर राग गाऊँगा।
देह को अदेह बना,
काल को बजाऊँगा।
जन्मों से बंद द्वार,
मानस के खोलूँगा।
रच दूँगा नवल नृत्य,
द्रुत लय पर दोलूँगा।
खुलो-खुलो मुझमें तुम,
सकल सृष्टि के चेतन।
प्रसरित हो जाने दो,
मेरा सब प्रेमाराधन।
कलुष सब बुहारूँगा।
क्या-साहस हारूँगा!
कभी नहीं, कभी नहीं।
तम विदीर्ण कर दूँगा,
रच दूँगा नये सूर्य।
अमर श्वाँस फूँकूँगा,
होगी ध्वनि महा-तूर्य।
मथ दूँगा सृष्टि सकल,
जन्मूँगा नव-मानव।
कण-कण को तब होगा,
नव-चेतन का अनुभव।
उठो-उठो मुझमें तुम,
ओ मेरे आराधन!
मैं हूँ नैवेद्य स्वयं,
मैं स्वाहा, मैं दर्शन।
दिव्य-देह धारूँगा।
क्या साहस हारूँगा!
कभी नहीं, कभी नहीं।