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क्यों नहीं होश में रहना चाहे / जयप्रकाश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
ख़ुद से बावस्ता क्या-क्या चाहे।
क्यों नहीं होश में रहना चाहे।
अपनी दुनिया की गुफ़्तगू पर वो,
क्या पता, कुछ नही कहना चाहे।
आरजू जाने वो किस-किस की करे,
होना कितना बड़ा ख़ुदा चाहे।
जब से है शोरगुल में चारो तरफ़,
रोज़ ताज़ा कोई हवा चाहे।
अपनी आदत से परेशाँ इतना,
ख़ुद में ख़ुद को यहाँ-वहाँ चाहे।
कोई जीने का सबब पूछ रहा,
कोई मरने का भरोसा चाहे।
पेट भरता नहीं तिजारत से,
जब से ईमान का सौदा चाहे।
कुछ भी साबुत न रहे पहले-सा
आए अब ऐसा जलजला, चाहे।