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क्यों पीड़ा हो गई जीवन धन / शशि पाधा
Kavita Kosh से
मोती माणिक की धरती से
माँगे केवल सुख के कण ।
क्यों पीड़ा हो गई जीवन धन?
निशि तारों की लड़ियाँ गिन -गिन
अनगिन रातें बीत गईं,
भोर किरण की आस में मुझ
विरहन की अँखियाँ भीज गईं।
कह दो ना अब कैसे झेलूँ
पर्वत जैसे दूभर क्षण ।
क्यों पीड़ा हो गई जीवन धन?
स्वप्न लोक आलोक खो गया
रात अमा की लौट के आई,
पतवारों सी प्रीत थी तेरी
मँझधारों में छोड़ के आई ।
नयनों में प्रतिपल आ घिरते
सजल, सघन, अश्रुमय घन।
क्यों पीड़ा हो गई जीवन धन ?
नियति का लेखा मिट न पाया
अश्रु-जल निर्झर बरसाया,
निश्वासों के गहन धूम में
अँधियारा पल-पल गहराया।
अन्तर के अधरों पे मेरे
मौन बैठा प्रहरी बन।
क्यों पीड़ा हो गई जीवन धन?