क्षणिकाएँ / चतुष्पदी / हरीश प्रधान
टूटते हर क्षण मगर हँसते हैं हम
जाल बुनकर स्वयं ही फँसते हैं हम
समस्याओं के घरोंदों में घिरे,
समझौते ही समझौतों में जीते हैं हम।
मैं कवि हूँ कविताएँ कहकर जीता हूँ...
अमृत जग को, मैं स्वयं गरल पीता हूँ
विज्ञान, ज्ञान की पूर्ण सम्पदा देकर,
मैं जीव जगत की स्वयं, एक गीता हूँ।
आपसे रूबरू हूँ जा दिल को थामो
ग़ज़ल कह रहा हूँ ज़रा दिल को थामो
धड़कने लगे हैं जवाँ दिल निकलकर
कहीं लग न जाय ज़रा दिल को थामो।
गीत क्या है हृदय की झंकार है
प्रीत क्या है प्राण का आधार है
और यह आधा ही मिट जाय तो
ज़िन्दगी होती यहाँ दुश्वार है।
क्या कहूँ कि तुम्हें मेरा साथ गवारा ही नहीं
मैं कहीं दूर न था, बस तुमने पुकारा ही नहीं
कौन-सा ग़रूर था जिससे तुम मग़रूर रहे
आईना सामने था बस तुमने निहारा ही नहीं।
प्यार बस प्यार है कोई व्यापार नहीं
दिल शिवाला है दुकान कारोबार नहीं
देखा जो तुम्हें प्यार यक ब यक उमड़ आया
प्यार बस प्यार है वासना से सरोकार नहीं।
रिश्ते अपनों से कितने ग़ैरों से
आदमी हैं तो रिश्ते ढेरों से
रिश्ते दिलों के मिटाये नहीं मिटते
यों रिवाजों में रिश्ते हैं बहुतेरे से।
अब प्रेम और प्यार भरे अंग-अंग में
फागुन है सभी लोग हों बस एक रंग में
पिचकारियाँ गीतों की मलने को हो गुलाल
आओ... मनाएँ होली आप के संग में।
रूप का आधार मन की भावना है
प्रश्न सूचक दृष्टियों का सामना है
इस परीशाँ जि़न्दगी को काट दे जो-
स्नेह सम्बल की यही प्रस्तावना है।