भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्षिप्रा के किनारे / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लड़खड़ाते पाँव हैं, सूनी डगर
झूम आगे चल रहा हूँ मैं मगर !

चांदनी नभ में सुखद फैली हुई,
दीपकों की राह में आभा नयी,

दूर हिलता वृक्ष पीपल का, पवन-
प्रति-झकोरे पर, विमूर्छित मूक मन !

झाँकता जिसमें नशीला चांद है,
छा गया रे कौन-सा उन्माद है ?

आरती के स्वर, रहा घंटा घहर; उठ रहीं प्रति बार क्षिप्रा में लहर !

पंथ पगडंडी बना मैं चल रहा
मार्ग का अणु-अणु बना संबल रहा !

औरतें गाती रही थीं आ जहाँ
जा रहा था एक मुर्दा भी वहाँ !

श्वान थोड़े-से पड़े थे भोंकते,
नालियों के पास भिक्षुक कोसते,

डालियों पर बैठ उल्लू बोलते,
दूत प्रतिपल ईश के जग डोलते !

साधुओं का है अखाड़ा पास ही
है जिन्हें परमात्मा विश्वास ही ?

और मैं आगे रहा हूँ चल उधर
जीर्ण कुटिया एक प्राणों की जिधर !

लड़खड़ाते पाँव हैं, सूनी डगर !