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खत्म होती शामों के साथ / शिव कुशवाहा

दिन के ढल जाने पर भी
मनुष्य चलना नहीं छोड़ता
चिड़िया उड़ना नहीं छोड़ती
नदियाँ बहना नहीं छोड़ती
उसी तरह सूरज भी नहीं बदलता अपना रास्ता

खत्म होती शामों के साथ
पक्षी लौटते हैं बिखरे हुए अपने घोंसलों में

अंधेरा बढ़ जाने के बावजूद
किसान को कोई फर्क नहीं पड़ता
वह अपनी फसलों को
सर्द हुए मौसम में सींचता है
और मजदूर अपनी खटराग में उलझे
दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करता है

जैसे अंधेरे के साथ रोशनी
दिन के साथ रात और दुख के साथ सुख
कभी साथ नहीं छोड़ते एक दूसरे का
वैसे ही रास्ते भी नहीं छोड़ते किसी राही का साथ

गहराती हुई शाम के धुंधलके में
कुछ स्मृतियाँ उभर आती हैं
कुछ पीड़ाएँ भी देती हैं दस्तक
और याद आता है वह सब कुछ
जो आंखों के सामने कुछ अधूरेपन के साथ
एक रील की मानिंद खुलती जाती है हमारे सामने

खत्म होती शामों के साथ
अंकित होते हैं पूरे के पूरे बीते हुए दिन
जिन पर लिखा होता है समूचे देश का इतिहास,

कि कुछ घटनाएँ दर्ज हो जाती हैं
स्याह हो रहे समय के माथे पर
जिन्हें याद करने पर कलेजा सहम उठता है।