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ख़ामोशी / माधवी शर्मा गुलेरी

अँधेरा पसरा हुआ है
खिड़की के बाहर
घुप्प...
बियाबान है पूरी पहाड़ी
मद्धम-सी एक लौ
दूर वीराने से निकल
खेल रही है आँख-मिचौली

यहाँ-वहाँ भटक रही
नन्हीं मशालों पर
जा अटकी हैं बोझिल नज़रें
जाने किस तलाश में है
टोली जुगनुओं की

बेसुर कुछ आवाज़ें
तिलचट्टे और झींगुर की
चीरे जा रही हैं
तलहटी में बिखरे सन्नाटे को

टिमटिमाते तारों ने
ओढ़ लिया है बादलों का लिहाफ़
और
तेज़ हवा के थपेड़ों से
झूलने लगा है कमरे से सटा
देवदार का दरख़्त
मैं खिड़की बंद कर लेती हूँ

भीतर एक शोर था
सन्नाटे में डूबकर
ख़ामोश हो गया है जो ।