खुद से ही बाज़ी लगी है
हाय कैसी ज़िंदगी है
जब रिवाजें तोड़ता हूँ
घेरे क्यों बेचारगी है
करवटों में बीती रातें
इश्क़ ने दी पेशगी है
रोया जब तन्हा वो तकिया
रात भर चादर जगी है
अर्थ शब्दों का जो समझो
दोस्ती माने ठगी है
दर-ब-दर भटके हवा क्यूं
मौसमे-आवारगी है
क़त्ल कर के मुस्कुराये
क्या कहें क्या सादगी है
(वर्तमान साहित्य, अगस्त 2009)