खुदगर्ज़ / आनंद कुमार द्विवेदी
इन दिनों बाहर बहुत कोलाहल है
कुछ टूट रहा है, किसी बहुमंजिली इमारत जैसा
ईमारत कितनी ही पुरानी क्यों न हो
उसका टूटना, दुखी करता है
उसे... जो उसके ईंट दर ईंट बनने का गवाह हो
इन दिनों अन्दर बहुत सन्नाटा है
अकेले शरीर और अकेली आत्मा के बीच
घनघोर गृहयुद्ध के बाद शांति समझौता हो चुका है
दोनों ओर से हताहत इच्छाओं की गिनती और अंतिम क्रियाओं का दौर जारी है
विजित का निर्णय अभी जल्दबाज़ी होगी
एक तीसरी दुनिया भी है
जो कभी कहीं न होकर भी
हर जगह होती है
असल में सबसे ज्यादा नुकसान उसे ही हुआ है
जैसे बिना भरोसे के हो गए हों
सपने … और अपने !
इन सबके बीच एक मैं हूँ
एकदम खुदगर्ज़
हर हाल में खुद को बचा ले जाने की चालाकियों से भरा हुआ
एकदम उस ब्रह्म जैसा
जिसने यह सुनिश्चित किया हुआ है
कि हर बार प्रलय के बावजूद
बचा रहे उसका अस्तित्व …!