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खुद भी हुए मशीन / ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान'
Kavita Kosh से
कलयुग यानी पुर्जों का युग
हम सब तेरह-तीन।
बीच मशीनों के रहकर हम
खुद भी हुए मशीन।
सुबह-सुबह उठकर बिस्तर से
रेडी होकर निकले घर से
नहीं देखते इधर-उधर हम
सिर्फ लेट होने के डर से
बस स्मार्ट-कार्ड छूकर ही
घड़ियाँ करें यकीन।
जिस मशीन के हैं लायक हम
उस मशीन के संचालक हम
नीटिंग स्वीन्ग वार्पिंग प्रेसिंग
या कंप्यूटर के चालक हम
कठपुतली से रहे नियंत्रित
खुश हों या गमगीन।
दिन भर दिखें वही कुछ चेहरे
आँखों में सन्नाटे गहरे
पत्नी बच्चों की निगाह में
हम तो सिर्फ एटीएम ठहरे
जीवन लगता नहीं ज़रा भी
मीठा या नमकीन।