भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुशियों का ठोंगा / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलो जाओ! बाज़ार से
कुछ सुकून तो खरीद लाओ,
हर पहर की मसरूफियत से
कुछ तो कमाया होगा तुमने?
जो मिले एक छोटी पुड़िया
नींद की तो लेते आना,
बहुत वक्त हुआ उसको
तेरी पलकों पर ठहरते नहीं पाया।

जो हैं तेरे पास
ये ऊँची मीनारें,
नक्काशीदार दीवारों से घिरी छत,
मखमली बिस्तर और
छींटदार रेशमी पर्दे,
मेरे पास तो नहीं हैं!
लेकिन मेरे कच्चे मकान के आँगन में
जो चाँद उतरता है रातों को
गर हो तुझे उसका दीदार कहीं
तो लेते आना!
मेरी बूढ़ी माँ के आँचल में बंधी
अब भी खनकती हैं कुछ चाबियाँ,
कहीं बंद हैं माँ के
जीर्ण-शीर्ण शादी वाले लाल जोड़े!
पिताजी के
कुछ पोस्टकाड पर लिखे खत,
एक पुराना खराब होता
श्याम श्वेत तस्वीरों से भरा एलबम
और कुछ पुरानी चूड़ियाँ!
ऐसी यादों की खुशबू वाली
कोई संदूक मिले तुझे तो लेते आना!

मैं माँ-पिता जी के संग रहता हूँ,
मैं उनको रखता नहीं हूँ,
हर आँसू और हँसी में
उनकी गोद में सर रखता हूँ!
मुफलिसी तो है, मगर
जो उनके चेहरे पर
तसल्ली भरा तबस्सुम है
कही खरीद सको तो लेते आना!
अरसा हुआ तुझे मैंने
खिलखिलाते नहीं देखा!
सुना है बड़े शहर के बाजारों में
ऐसा कुछ भी नहीं जो बिकता न हो!
जो मिले खुशियों का ठोंगा
कहीं उधार भी तो लेते आना!