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खेल / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
नहीं आजकल उसको,
काम और भाता है।
खेल उसे सेवा का,
मदद का सुहाता है।
न उसे कबड्डी ही,
खो खो ही आती है।
पिट्ठू पर बार बार,
गेंद चूक जाती है।
हार हार बच्चों से,
खूब मार खाता है
खेल उसे सेवा का,
मदद का सुहाता ह
ढोलक न तबला न,
बांसुरी बजा पाता।
गीत ग़ज़ल कविता न,
लोरी ही गा पाता।
चिड़ियों की चें-चें में,
खूब मजा आता है।
खेल उसे सेवा का,
मदद का सुहाता है।
नहीं भजन संध्या से,
फ़िल्मों से है नाता।
संतों की बात कभी,
सुनने भी न जाता।
भूखों को प्यासों को,
अन्न जल दे आता हैं।
खेल उसे सेवा का,
मदद का सुहाता है।