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गाँव किधर है / कुमार कृष्ण

पहली बार बच्चे ने शहर आकर पूछा- ‘गाँव किधर है बापू!’
मैंने सामने उड़ते पक्षी की ओर इशारा किया-
‘वह देखो, पक्षी की चोंच के दाने में
उड़ रहा है गाँव’
बच्चा बड़ा होता गया
बड़े होते गए उसके सवाल
वह भूलता चला गया
गाय और माँ के दूध का अंतर
वह भूल गया-
जूता खोलने और पहनने का फर्क
अट्ठारह साल बीत जाने पर
मैंने एक दिन बच्चे से पूछा-
‘क्या तुम आज भी बोल सकते हो दादी की भाषा?’
बच्चे ने एक दुकान की ओर इशारा किया-
‘पापा उधर देखो
शायद उस सब्जी बेचने वाली औरत के पास बची हो
थोड़ी-बहुत
क्या करेंगे आप उस भाषा का?’
बेटा, वह मेरे हँसने की, रोने की भाषा है
जागने की, सोने की भाषा
मैंने तुम्हारी जेबों में बिजूका के पैरों वाली
जो भाषा भर दी है
वह डराने-धमकाने की चीज है
तुम्हारे सपनों की भाषा नहीं
उधर देखो उधर उस खिड़की की ओर
तुम्हारी माँ ने-
जिसे सौंप दी हैं अपनी दोनों आँखें
उस खिड़की के सरियों पर
झूल रहा है उसका छोटा-सा गाँव
वह हम सब के इन्तजार में पका चुकी है-
अनगिनत सूरज
फिर भी नहीं भूली सरसों का साग खिलाना
ऐसे समय में जब तमाम स्कूल पढ़ा रहे हैं तराजू की वर्णमाला
फिर कौन याद करेगा नीम का पेड़
कौन पूछेगा-‘गाँव किधर है बापू!’