भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाँव से घर निकलना है / यश मालवीय
Kavita Kosh से
कुछ न होगा तैश से या सिर्फ़ तेवर से,
चल रही है, प्यास की बातें समन्दर से ।
रोशनी के काफ़िले भी भ्रम सिरजते हैं,
स्वर आगर ख़ामोश हो तो और बजते हैं,
अब निकलना ही पड़ेगा, गाँव से- घर से
एक सी शुभचिंतकों की शक्ल लगती है,
रात सोती है हमारी नींद जगती है,
जानिए तो सत्य भीतर और बाहर से ।
जोहती है बाट आँखें घाव बहता है,
हर कथानक आदमी की बात कहता है,
किसलिए सिर भाटिए दिन- रात पत्थर से ।