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गाड़ता हुआ / महेन्द्र भटनागर

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हो रहा है दुंदभी का घोष द्वार-द्वार पर,
हिल रही है सुप्त कब्र-कब्र नव-पुकार पर !

पूर्व रूप पर नवीन शक्ति जैतवार है,
दर्प की शिला तड़क रही, नया प्रहार है !

ज़िन्दगी ने कर दिये दलित सशक्त-कठघरे,
भूमि पर गिरा दिये कुलाधि पात्र विष भरे !

तारतम्य रोशनी सदृश अटूट चल रहा,
दाघ-दाझना से मिट रहा विपक्ष बल महा !

आफ़तों के बादलों के झुक गये हैं गर्व सिर,
और गर्जनों का है दहाड़ता हुआ विलीन स्वर !

आ रहा है युग नया-नया लथाड़ता हुआ,
दुश्मनों की मौत कर जघन्य गाड़ता हुआ !