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गाय / प्रभात
Kavita Kosh से
साँझ ढलने
और इतना अन्धेरा घिरने पर भी
घर नहीं लौटी गाय
बरसा में भीगती मक्का में होगी
या किसी बबूल के नीचे
पानी के टपके झेलती
पाँवों के आसपास
सरसराते होंगे साँप-गोहरे
कैसा अधीर बना रही होगी उसे
वन में कड़कती बिजली रो तो नहीं रही होगी
दूध थामे हुए थनों में
कैसा भयावह है अकेले पड़ जाना
वर्षा-वनों में
जीवन में जब दुखों की वर्षा आती है
इतने ही भयावह ढंग से अकेला करते हुए
घेरती है जीवनदायी घटाएँ