गिनती के गीत सुना पाया!
जब जग यौवन से लहराया,
दृग पर जल का पर्दा छाया,
फिर मैंने कंठ रुँधा पाया,
जग की सुषमा का क्षण बीता मैं कर मल-मलकर पछताया!
गिनती के गीत सुना पाया!
संघर्ष छिड़ा अब जीवन का,
कवि के मन का, पशु के तन का,
निर्द्वंद-मुक्त हो गाने का अब तक न कभी अवसर आया!
गिनती के गीत सुना पाया!
जब तन से फुरसत पाऊँगा,
नभ-मंड़ल पर मँड़राऊँगा,
नित नीरव गायन गाऊँगा,
यदि शेष रही मन की सत्ता मिटने पर मिट्टी की काया!
गिनती के गीत सुना पाया!