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गीत अधर पर / श्रीकान्त जोशी
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गीत अधर पर सुधि सिरहाने
फिर से जागे दर्द पुराने।
ऊपर उड़ती घटा जामुनी
छोड़ चली सब ठौर-ठिकाने
नीचे ठगिनी हवा कहारन
लगी बहकने, लगी छकाने
बिजली ठुमके देकर ताने।
गरब किए बैठा सूनापन
खुला हुआ मेरा वातायन
बंद नहीं कर पाऊँ उठकर
ऐसा बोझ किए मन धारण
संज्ञा ही से हैं अनजाने।
खुली-खुली पलकों के जोड़े
सपनों में हैं थोड़े-थोड़े
मौसम भिगो गया है इनका
बग़ैर शब्द की जड़ता तोड़े
कोलाहल बैठा सुस्ताने।
गीत अधर पर सुधि सिरहाने
फिर से जागे दर्द पुराने।