गीत तुम्हारे गाती हूँ मैं / नर्मदाप्रसाद खरे
गीत तुम्हारे गाती हूँ मैं
मौन प्रतीक्षा, सजल नयन ले संध्या-प्रदीप जलाती हूँ मैं।
एक दिवस अनजाने ही तुम
इन प्राणों से खेल गए हो,
युग युग की प्यासी आंखों में
छबि का सिंधु उडेल गए हो।
आंखें जहां ठहर जाती हैं, एक तुम्हें ही पाती हूँ मैं।
एक झलक में चिर परिचित-सी
छाया उर पर छोड गए हो,
छाया पथ में कुसुम खिला तुम
जीवन की गति मोड गए हो।
पथ के शेष चरण-चिह्नों को चूम-चूम खिल जाती हूँ मैं।
माधव की मधु-माया दो पल,
इस डाली पर झूल गई है,
नंदन की फुलवारी भी तो
इस मरुथल पर फूल गई है,
मत पूछो, इस शून्य-सदन में कैसे दिवस बिताती हूँ मैं।
रवि रथ पर संध्या-अंचल में
छिपते से तुम चले गए हो,
विरह मिलन की युग पलकों में
दिपते से तुम चले गए हो!
नीरवता को चीर क्षितिज पर पग-ध्वनियां सुन आती हूँ मैं।
गीत तुम्हारे गाती हूँ मैं।