भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुजरात का बलात्कार / दिलीप चित्रे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं, वह शिफ़ॉन का चिलमन से आधा झाँकता रूमानी गुलाबी चेहरा नहीं, जो किसी मुम्बईया मुस्लिम सम्मिलन में नज़र आता है जहाँ
हर काया काली सिल्क या सॉटिन के लिबास में सरसराती है और ग़म सितार के तार
छेड़ता है

बल्कि वह, जो नंगे भय से थर्राती काया को ढँकती हर चीज़ को चीर-फाड़ कर रख
देता है।
नहीं, वह रहस्यों आदर्शों में कल्पित कामुक इन्तज़ार में थरथराती हुई भावना नहीं
बल्कि वह, जिसकी माँसलता दहशत और आघातों की गहरी सतह पर बनती है,
भड़काया, कोंचा, कुरेदा, बलत्कृत, काटा, फाड़ा, धज्जी उड़ाया
योनि तक कुचला हुआ इन्सानी जिस्म

जिसे जला डाला गया कि धुएँ के उस पहचाने हस्ताक्षर को
हर कोई सूँघ तो सके पर कोई कुछ कह ना सके

कोई माँ सुरक्षित नहीं है, ना बेटी ना बीवी ना पत्नि ना मंगेतर ना मित्र
ये मादरचोद दंगों के दृश्य रंगते हैं भगवे हरे और काले से

ये बूर्ज़ुआ घरों से आते हैं नाश्ते में फरसाण खाते हैं और प्रार्थना से पहले पादते हैं
ये हर भड़कीले मन्दिर में पीतल की घण्टियाँ और भक्ति के घड़ियाल पीटते हैं

सेलफ़ोन इस्तेमाल करते हैं डिस्कमैन बजाते हैं चमचमाती टाउन कार चलाते हैं 90 से ज़्यादा चैनल देखते हैं
विस्की पीते हैं भावुक होने के लिये श्रद्धांजली देते हैं नरक से आए धर्म के उपदेशकों को
ये हमारे अपने ही परिवार के लोग हैं, मित्र हैं और पड़ोसी हमारी बगल के जिनसे हम दही माँग लाते हैं
वे सँक्रांति के दिन पतंग उड़ाते हैं और पटाखे छोड़ते हैं दीवाली में या क्रिकेट में जीत के बाद
हम उन्हें पिकनिक पर देखते हैं थियेटर में मिलते हैं हमारी पसन्द के रेस्टारेण्ट में पाते हैं

वे तीन पीढ़ियों से इसकी योजना बना रहे हैं 1947 से और अब यह चौथी आती है

जिसके लिए अवचेतन है महज एक हार्ड-कॉपी और एक गूढ़ की तरह जिसका अर्थ तुम समझते राहे साबरमती के तट पर
जहाँ बापू बच्चों और बकरियों के साथ खेलते थे आज़ादियों के बीच

(रचनाकाल : 2002)