गुम्म चोट-
नील तो पड़ ही जाती है।
अव्यक्त व्यथाएँ लोग कह न सके,
मन की मन में ही लिए चले गये।
बूँद-समुद्र हो गये।
मन के हिसाब
आँधी में पतंगों की डोरियों से उलझे रह गये।
ओठ बुदबुदाकर रह गये।
चरमराई आँखों से बस, आसमान को ही कह गये।
सीलन की गन्ध वाले खपरैलों में,
भीगे तकियों वाले बिस्तरों में
मन के रेशमी आघातों में,
झींगुरों वाली अँधेरी रातों में,
आँखों से किसके जाने क्या-क्या बह गये!
कुत्ते भूँकते रहे।
अँधेरी रातों में चट्टानों पर पछाड़े खाते समुद्र से मन
हिचकियों, बिजलियों-सा पसलियों का दरद लिए रहे,
सबद रह गये अनकहे!
आकाश आँखें खोले यह कब तक देखता
कितना देखता
मौन रह गए गुम्म चोटें खाता रहा।
इसीलिए आकाश नीला है?
1990