भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुहर-ओ-अश्क / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
बरसी तो थी मेरे लिए वो नन्ही सी बदली,
कुछ दामन-ए-नसीम ने बूँदें समेट लीं,
बाद-ए-सबा चली तो दरख्तों पे जा गिरीं,
मटकीं जो पत्तियाँ तो आ मुझसे गले मिलीं !
मैंने भी बडे प्यार से सँभाल के रख लीं, और
गौहर-शनास शख्स कोई ढूँढने निकली !
वो बोला:
“ये तो हैं नैसाँ, दुर-ए-नायाब बनेंगी !
हैं कीमती बहुत, तेरी आँखों में सजेंगी !“
बात उसकी ये गहरी सोच में मुझको डुबा गई...
गुहर-ओ-अश्क में जो फ़र्क कुछ नहीं है अगर,
समझ के आँसू, बेशुमार मैं दौलत लुटा गई !
21.07.93