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गेंद और बल्ला / कन्हैयालाल मत्त
Kavita Kosh से
गेंद रबर की पोली-पोली,
है लकड़ी का बल्ला।
गेंद उड़न-छू हो जाती है
खा बल्ले का टल्ला !
अगर ज़ोर से टल्ला मारा,
हाथ नहीं आएगी।
किसी पड़ोसी के मकान की,
छत पर चढ़ जाएगी !
छत पर कोई हुआ अगर, तो —
बहुत बुरा मानेगा।
बात तुम्हारी नहीं सुनेगा,
अपनी ही तानेगा !
अतः खेलना है तो खेलो,
खुले फ़ील्ड में डटकर।
भीड़-भरी गलियों से बचकर,
सड़क-वड़क से हटकर।