गेटवे ऑफ़ इण्डिया से सूर्योदय / सुरेन्द्र स्निग्ध
बाम्बे वी० टी० से
गेटवे ऑव इण्डिया तक की पक्की सड़क
उदास, उनींदी लग रही है आज
पूरबी क्षितिज का कोर
दूधिया हो रहा है
रेलिंग के सहारे
हम देख रहे हैं पूरब की ओर
समुद्र का महाविस्तार
हम सोच रहे हैं
समुद्र की अनन्तता का वर्णन करने में
शब्द कितने ओछे हो जाते हैं
छोटे हो जाते हैं
हमारे आस-पास घूम रहा है
टेलिस्कोप वाला
एक-एक रुपया लेकर
वह बच्चों को दिखलाता है
समुद्र का महाविस्तार
कुछ बच्चे
जो अपने माँ-बाप के साथ
चले आए हैं घूमने यहाँ तड़के
ज़िद कर रहे हैं
इस टेलिस्कोप के सहारे
देखने समुद्र में
दूर से आते हुए जहाज़ों के मस्तूल
बच्चे क्या देखेंगे
कौन आया था यहाँ
इन जहाज़ों में भरकर,
किसके स्वागत में बना था
यह विशाल प्रवेश द्वार,
कैसे कर बैठे थे यहाँ
विगत के जहाज़ी
लहरों की तरह
तख़्ता पलट देने की ज़िद?
बच्चे क्या देखेंगे
भविष्य के सुनहरे सपनों से
लदा जहाज़?
हम अपनी नंगी आँखों से
नाप लेना चाहते हैं यह विस्तार
समा लेना चाहते हैं
प्रकृति का अपूर्व दृश्य
कि अचानक कबूतरों का बड़ा झुण्ड
ताज होटल के मुण्डेरों से
अपने पँखों में
लालिमा लपेटे
उतर आया है
रेलिंग के आस-पास
हम चकित देखते हैं
समुद्र में पूर्व से उठ रही है
लाल रंगों की भारी लपट
फैल रही है
पानी पर तेल की तरह
हवा में बादलों की तरह
फैल आई है
ताज होटल के मुण्डेरों पर
जहाँ से
अपने पँखों में लपेटकर इसे
कबूतर उतर गए हैं
हमारे आस-पास ।
ऐसी ही उठती है
हमारे घर के रास्ते में
बरौनी तेल शोधक से
रंगों की लपट
विचारो का क्रम टूटता है —
इस सुन्दर और महान दृश्य के ऊपर
तैर आते हैं —
बम्बई से पूर्णिया तक की दूरी
तैर आते हैं —
गाँव की पूर्वी सीमा
ऐसा ही विशाल पीपल का पेड़
और इसकी फुनगी पर
रोज़ सबेरे नाचने वाला सूरज
लाली लेकर जो
नित उतरता है
हमारे फूस के घर की छत पर
और इसे छींट देता है
हमारे घर की देहरी पर
फिर आँगन में भी
और यहाँ
थम गयी है समुद्र के बीच की लपट
और वह तब्दील हो रही है
गोल लाल गेंद की शक़्ल में
और फिर तुरत
बड़ी-सी यह गेंद झूलने लगी है
समुद्र के ऊपर
और हमारे पैरों के निकट की लालिमा
घुल गई है
समुद्र की लहरों में
श्वेत पँख फैलाए
कबूतरों का बड़ा झुण्ड
उड़कर पुनः जा बैठा है
ताज के मुण्डेरों पर ।