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गैहण / श्याम महर्षि
Kavita Kosh से
मिनखपणैं नैं
लाग रैयो है गैहण,
च्यारूंमेर
अन्धारो ई अन्धारो
पण
गैहण मिटै
इणा खातर बो
नीं करै कोई खैचल
गैहण री मियाद
बधती जाय रैयी है
लगोलग,
गैहण सूं
हुवतै उजाड़ सूं
बो ओजूं ई
निसफिकर है,
कदै कदास
बो बिचारै कै
ओ गैहण
मिट क्यूं नीं जावै
आपो आप
कदास हूय जावै
नूंवो उजास
जद कै
ओ गैहण
उण रै मन मांय
बैठ्यो है घेरो घाल‘र
उण्डो घणौ उण्डो