गोपिका! हौं नित रिनी तिहारौ।
नव-नव बढ़त जात रिन छिन-छिन, नहिं घटिबे कौ बारौ॥
घटै तबहिं, जब तुम गोपिन हौं सुख बिसेष दे पाऊँ।
तुहरे सुख बिसेष कौ साधन हौं निज सुखहि बढ़ाऊँ॥
ज्यौं-ज्यौं बढ़ै तिहारे द्वारा मेरौ नव सुख प्रति छिन।
त्यौं-त्यौं बढ़तौ रहै तिहारौ रिन मो पै नित नूतन॥
या बिधि तुहरे रिन-सोधन कौ जो उपाय कछु करियै।
तौ उलटौ रिन बढ़ै, न साधन कोउ, जासौं रिन भरियै॥
तन-मन-धन-जीवन अरपन करि मेरौ ही सुख साधौ।
धर्म-लोक-परलोक-स्वजन-कुल त्यागि मोहि आराधौ॥
या रिन तैं नहिं उरिन कबहुँ ह्वै सकौं, न होनौ चाहौं।
नित नव सेवा कौ अवसर लहि नित नव मनहि उमाहौं॥
कबहुँ सोधि पाऊँ न तिहारौ रिन अति मधुर मनोहर।
बँध्यौ रहौं तुव प्रेम-दाम सौं, भूलि सबहिं जोगैस्वर॥
खेलूँ सदा तिहारे सँग, हौं नित नव रास रचाऊँ।
तुहरे रस तैं परम सुखी बनि तुहरौ सुख सरसाऊँ॥