ग्लेडिएटर / नरेन्द्र कुमार
एक झटके में
होता सीना चाक ग्लेडिएटरों का
टप–टप गिरता ख़ून
रेत में जा सूखता
लगते थे ठहाके
पवित्र रोम के अभिजातों के
साक्षी है कोलोसियम
एक आश्चर्य…
सभ्यता का
एक शरीर के चूकते ही
आ जाता दूसरा शरीर
ग़ुलामों का...
मज़दूरों का...
सीधे–सीधे कहें तो
मजबूरों का
उनकी नज़र में
वे ग्लेडिएटर थे
एम्फ़ी थिएटर के खिलौने थे
जिनके ख़ातिर न ताबूत था
न कफ़न
पर दरअसल वे
हमारी दुनिया के शहीद थे
भूल चुके हम उन्हें
भूल चुके उनके विद्रोह को
उनके नेता स्पार्टकस को
रोम से कापूआ के बीच खड़े
हज़ारों सलीबों को
उन पर टँगे ग़ुलामों को
बस, याद रह गया है
भव्य कोलोसियम !
आज रोम का सीनेट
इसी स्मृति लोप का फ़ायदा उठा रहा है
पूरे ग्लोब पर छा रहा है
उनके एम्फ़ी थिएटर बड़े होते जा रहे हैं
उसी अनुपात में ग्लेडिएटर बढ़ते जा रहे हैं
जोड़ियाँ तय की जा रही हैं
अभिजात आज भी इन अखाड़ों में
पैसे लगा रहे हैं
पैसा बना रहे हैं
सीरिया, ईराक, अफ़गानिस्तान जैसे
विशाल एम्फ़ी थिएटरों में
किसान–मज़दूर एवं ग़ुलामों के बेटे
लहूलुहान हो रहे हैं
यथार्थ जानने से पहले ही
चूक जा रहे हैं
हालात वही हैं
बस...
औजार बदल गए हैं
हम राष्ट्रवाद के नारों के बीच
ग्लेडिएटरों को गिरता देख रहे हैं
रेतपर, मिट्टी पर...
कहाँ देख पा रहे हैं ?
...कि हर मुक़ाबले के बाद
हमारे बीच के लोग
कम होते जा रहे हैं