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घटा / विजेन्द्र
Kavita Kosh से
दिन भर तोडूँ रोड़ी भाया
घनचकर कहलाऊँ
रंग-बिरंगे सपने देखूँ
उनसे मन बहलाऊँ
धूप छेदती
ठंड काटती
बरखा करती गीला
धन्ना मुझको घिन से देखे
चेहरा फक्क है पीला।
एक चोट से कुछ ना होवै
दूजी परत उकेरे
घन की चोट दरार डालती
चट्टानों को तोडे।
यह तो बल मानुख का भाया
लडता रहा सदा ही
मैं क्या सीखा
अब तक उससे
तनिक चोट भरमाया
बनती दुनिया श्रम से सुन्दर
निठ्ठल खाय अनर्से।
पानी से भी पतला क्या है
खाल उतारें तन से।
खुद बहुरूपी बाना पहने
झुठ को कंठ छिपाता
करता मुझको घिन अन्दर से
बाहर लाड लडाता।
जान गया हूँ
मैं उसकेा अब
स्यार बना है शेरा
मुझको साहस आता लखकर
बना पात है केरा।
फिर भी गम खाता हूँ भाया
अभी बखत है भारी
अभी और पकने दे लोहा
घटा उठेंगी कारी।
2002