एक अपरिचित गन्ध,
कहीं से दबे पाँव आयी
जैसे सूने तट,
फूलों से लदी नाव आयी
कितना भी अज्ञातवास हो
साथ चलें छवियाँ
छज्जे आँगन दालानों भर
सुधियाँ ही सुधियाँ
ख़ुशी कनी बन कर फुहार की
गली गाँव आयी
छलक गया गगरी से पानी
मन था भरा-भरा
आँखों में छौने सा दुबका
सपना डरा-डरा
कड़ी धूप में चलते-चलते
घनी छाँव आयी
माथ सजा नक्षत्र, थाल में
नन्हा दिया जले
सुख के सौ सन्दर्भ जुड़े तो
गीत हुए उजले
पथ भूली ऋतु पता पूछ कर
ठौर-ठाँव आयी