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घर-गाँव की लड़कियों की तरह / नवल शुक्ल
Kavita Kosh से
शहर के इस मुहल्ले में
पहली बार आया
और देखा लड़की को।
उसकी आँखों में, चेहरे पर
नहीं देखा अपरिचय
तो बार-बार देखा
समय से हटकर
गली के मोड़ से
खिड़कियों से
आँखों की कोर से।
वह सुबह उठती है
साफ़ करती है घर, बर्तन, कपड़े
सड़कों, चौराहों को पार कर
प्रशिक्षण के लिए जाती है कहीं
सुबह-शाम गलियों में घूमती है
ठहर-ठहर कर
खिड़कियों-दरवाज़ों पर खड़ी रहती है
मुझे देख मुस्कुराती है
घर-गाँव की लड़कियों की तरह।