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घर / आकांक्षा पारे
Kavita Kosh से
सड़क किनारे तनी हैं
सैकड़ों नीली, पीली पन्नियाँ
ठिठुरती रात
झुलसते दिन
गीली ज़मीन
टपकती छत के बावजूद
गर्व से वे कहते हैं उन्हें घर
उन घरों में हैं
चूल्हे की राख
पेट की आग
सपनों की खाट
हौसले का बक्सा
उम्मीद का कनस्तर
कल की फ़िक्र किए बिना
वे जीते हैं आज
कभी अतिक्रमण
कभी सौंदर्यीकरण
कभी बिना कारण
उजाड़ दिए जाते हैं वे
बिना शिकन
बांधते हैं वे
अपनी जमीन
अपना आसमान
निकल पड़ते हैं
सड़क के नए किनारे की तलाश में।