भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घर की डाही / मथुरा प्रसाद 'नवीन'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अउ देखो,
ऊ लड़की के
गोदी में बच्चा हे,
उमर बड़ी कच्चा हे
अभियो अनाथ हे,
साठ बरस के
बूढ़ा जे साथ हे!
कैसन अती हे,
बूढ़ा के बंस ले
बेचारी सती हे
न काम ओकरा झोपड़ी से,
न काम ओकरा झोपड़ी से,
न काम तिनतल्ला से,
बिनती करऽ हे ऊ
ईस्वर से अल्ला से
पुरूष जे बोलै
मन मिजाज आला हे,
नारी के जनमैते
जुबान पर ताला हे
हे भाय
बेटा आउ
बेटी के बात नै
समझ के बात हे कि
हम की चाहऽ ही
अपने घर के हम
लंका-सन डाहऽ ही।