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घर पछुअरबा लौग केरा गछिआ / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

कोहबर में उल्लास के साथ दुलहिन दुलहे से मिलने जाती है, लेकिन दुलहे की किसी बात से रूठकर दुलहिन मायके चल पड़ती है। दुलहा भी बहुत-सी सामग्री के साथ दुलहिन को मनाने जाता है और अपने साले से अपनी बहन को मना देने का आग्रह करता है। साला अपनी बहन को मनाते हुए उसे ससुराल लौट जाने को कहता है। बहन अपने भाई के सामने ही अपने पति के प्रति अपशब्द का प्रयोग करने लगती है। भाई बहन को ऐसा करने से मना करता है और कहता है- ‘तुम्हारा दूसरा विवाह तो होगा नहीं और अब निर्वाह भी इसी पति से होगा। क्षणिक आवेश में आकर इस प्रकार रूठना ठीक नहीं।

घर पछुअरबा लौंग केरा गछिआ, लौंग फूलै सारी रात हे।
लौंग चुनिय चूनि सेजिया डँसैलऊँ, सेज भरि फूल छिरिआय<ref>छींट देना; बिखेर देना</ref> हे॥1॥
ओहि सेजिया सूते गेला बबुआ से कवन बबुआ, जौरे पंडित केरा धिया हे।
घुरि सूतू फीरि सूतू सुहबो हे कनिया सुहबी, तोरे घाम चदरिया मैल होय हे॥2॥
एतना बचनिया जब सुनल हे कनिया सुहबी, रुसली नैहरबा चलि जाय हे।
जुअबा खेलैतेॅ तहुँ सरबा<ref>साला</ref> से कवन सरबा, रुसली बहिनियाँ बौंसी<ref>मना दो</ref> देहो हे॥3॥
घुरि<ref>लौट जाओ</ref> जाहो आगे बहिनो हमरो बचनियाँ, दुआरे दुलहा बाबू ठाढ़ हे।
हमें कैसे घुरबै भैया तोहरे बचनियाँ, पराय पूता बोलल कुबोल हे।
पराय पूता पराय पूता जनि बोलु बहिनों, पराय पूता होत निरबाह हे॥4॥
एक नैया आबै लौंग सुपारी, दोसर नैया पाकल पान हे।
तेसर नैया आबै पातरी बलमुआ, सुहबी मनाबन होय हे॥5॥

शब्दार्थ
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