॥निर्गुण॥
घर पिछुआरी लोहरवा भैया हो मितवा।
हंसा मोरा रहतौ लुभाय के हो मितवा॥घर.॥
पीपर के पात फुलंगिया जैसे डोले हो मितवा।
जैसन डोले जग संसार हो मितवा॥घर.॥
लख चौरासी भरमी यह देहिया हो मितवा।
कबहू ना लिहलै सतगुरु नामिया हो मितवा॥घर.॥
कहहि कबीर सुनो भाई साधो हो मितवा।
संतो जब लेहू न विचारी हो मितवा॥घर.॥