घर बनाते / कौशल किशोर
यह मोहल्ले का कोई पार्क नहीं
बच्चों के खेल का मैदान भी नहीं
मेरा घर है
मैं बन्द रखना चाहता हूँ
बाहर की ओर खुलने वाली
इसकी सारी खिड़कियाँ
दरवाजे
हर झरोखे
सब कुछ सुरक्षित है यहाँ
परदे के अन्दर
मैं रखना चाहता हूँ इन्हें
ढ़क कर
छिपा कर
दुनिया की नजरों से बचाकर
ये कीमती बनी रहेंगी ऐसे ही
हमारी इज्जत का सम्मोहन कायम रहेगा
आपके बीच
हम बने रहेंगे पानीदार
मेरी पत्नी है
इन्हें पसन्द नहीं
बन्द बन्द
उसका जी घुटता है बन्द घर में
मन घबड़ाता है
वह खुला रखना चाहती हैं
खिड़कियाँ और दरवाजे
बेरोक टोक हवा आ जा सके
घर में हो पर्याप्त रोशनी
कहती है
हमारे पास है ही क्या
जिसे छिपाकर रखा जाय जतन से
जीवन से अमूल्य है क्या कुछ
मैं चाहती हूँ खुली हवा में साँस लेना
लहराना चाहती हूँ अपने लम्बे खुले बाल
चिडि़या होने का अहसास जीना चाहती हूँ
महसूस करना चाहती हूँ
अपना होना
ऐसा ही कुछ
इस दुनिया में
मैं बनाना चाहता हूँ अपना घर
पत्नी को भी बेहद प्यार है घर से
पर ऐसा होता है कि
घर बनाते बनाते
हम नदी के दो विपरीत छोरों पर
अपनी अपनी पीठ किये
हो जाते हैं खड़े।